क्या Aluminium के बर्तन और Foil से Cancer होता है? जानिए साइंस, सेफ लिमिट, सही उपयोग के नियम और डॉक्टरों की राय इस डिटेल्ड गाइड में।
क्या Aluminium के बर्तन और Foil से सच में Cancer होता है?
भारत के ज़्यादातर किचन में Aluminium के बर्तन, तवे और एल्युमिनियम फॉइल रोज़ाना इस्तेमाल होते हैं। एक तरफ सोशल मीडिया पर यह दावा किया जाता है कि एल्युमिनियम एक “ज़हरीली मेटल” है जो खाने में घुलकर कैंसर और किडनी फेलियर तक का कारण बन सकती है, दूसरी तरफ डॉक्टर और साइंटिस्ट कहते हैं कि सामान्य किचन यूज़ से कैंसर का सीधा सबूत नहीं मिला है। ऐसे में आम लोगों के मन में बड़ा कन्फ्यूज़न बन जाता है कि आखिर सच क्या है, और उन्हें अपने किचन में क्या बदलना चाहिए और क्या नहीं।
इस आर्टिकल में एल्युमिनियम के बर्तनों और फॉइल से जुड़े मिथ, साइंस और सेफ्टी गाइडलाइंस को आसान, सिंपल हिंदी में समझाया गया है। यहां आप जानेंगे कि एल्युमिनियम शरीर में कैसे जाता है, कितनी मात्रा तक इसे सेफ माना गया है, किस तरह के कुकिंग तरीके रिस्क बढ़ा सकते हैं, और किन सिंपल आदतों से आप बिना डर के इसे सुरक्षित तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं।
एल्युमिनियम क्या है और हमारे आसपास कहां-कहां मिलता है?
एल्युमिनियम धरती पर सबसे ज़्यादा पाया जाने वाला मेटल है और यह सिर्फ बर्तनों में ही नहीं, बल्कि पानी, अनाज, सब्ज़ियों, पैकेज्ड फूड, बेकिंग पाउडर और कुछ दवाओं में भी मिलता है। यानि चाहे आप एल्युमिनियम बर्तन इस्तेमाल करें या न करें, थोड़ी-बहुत एल्युमिनियम की मात्रा रोज़मर्रा की डाइट से शरीर में जाती ही रहती है।
कई देशों की फूड सेफ्टी एजेंसियों ने डाटा देखकर पाया कि डाइट से आने वाली एल्युमिनियम की औसत मात्रा आम लोगों के लिए आम तौर पर सेफ लिमिट के अंदर ही रहती है, हालांकि कुछ लोगों में यह लिमिट के पास या हल्का ऊपर भी जा सकती है। इसीलिए ज़रूरी है कि हम समझें कि “कुल एक्सपोज़र” कैसे बनता है और उसमें कुकवेयर या फॉइल का कितना योगदान है।
कैंसर एजेंसियां एल्युमिनियम को कैसे देखती हैं?
इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (IARC) ने एल्युमिनियम प्रोडक्शन इंडस्ट्री में काम करने वाले वर्कर्स के लिए कैंसर रिस्क को “कार्सिनोजेनिक टू ह्यूमन्स (ग्रुप 1)” के रूप में क्लासीफाई किया है। यह क्लासिफिकेशन खास तौर पर उन वर्कर्स पर लागू होता है जो एल्युमिनियम स्मेल्टर जैसे प्लांट्स में धुएं, डस्ट और दूसरे केमिकल्स के साथ लम्बे समय तक इनहेल्ड (साँस के रास्ते) एक्सपोज़र में रहते हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि यही कैंसर रिस्क “इंडस्ट्रियल इनहेल्ड एक्सपोज़र” के लिए है, न कि घरों में खाने के ज़रिए जाने वाली सामान्य मात्रा के लिए। यूरोपियन फूड सेफ्टी ऑथोरिटी (EFSA) और WHO/FAO की जॉइंट कमेटीज़ ने उपलब्ध स्टडीज़ देखकर निष्कर्ष निकाला है कि जो एल्युमिनियम आम डाइट से पेट के रास्ते जाती है, उसके लिए कैंसर का सीधा और मज़बूत सबूत नहीं है, हालांकि दूसरे तरह के हेल्थ इफेक्ट्स पर रिसर्च जारी है।
EFSA और WHO की “सेफ लिमिट”: कितना एल्युमिनियम ठीक माना जाता है?
यूरोपियन फूड सेफ्टी ऑथोरिटी (EFSA) ने 2008 में एल्युमिनियम के लिए “टॉलरबल वीकली इंटेक” यानी TWI 1 मिलीग्राम प्रति किलो बॉडी वेट प्रति हफ्ता तय किया। बाद में WHO/FAO की जॉइंट FAO/WHO एक्सपर्ट कमेटी ऑन फूड एडिटिव्स (JECFA) ने नए साइंटिफिक डेटा की समीक्षा के बाद एक “प्रोविज़नल टॉलरबल वीकली इंटेक” 2 मिलीग्राम प्रति किलो बॉडी वेट प्रति हफ्ता तक बढ़ाया, जिसका मतलब है कि इस स्तर तक आजीवन सेवन को आमतौर पर सुरक्षित माना गया।
आसान भाषा में समझें तो 60 किलो वज़न वाले व्यक्ति के लिए EFSA के हिसाब से हफ्ते में 60 मिलीग्राम, और JECFA के हिसाब से 120 मिलीग्राम तक की एल्युमिनियम इंटेक को सेफ मार्जिन के अंदर माना गया है। कई सर्वे बताते हैं कि आम यूरोपीय डाइट से लोग इन लिमिट्स के आसपास या कभी–कभी इससे ऊपर जा सकते हैं, लेकिन उसमें बड़ा हिस्सा फूड एडिटिव, प्रोसेस्ड फूड और नॉन–फूड सोर्सेज से आता है, सिर्फ कुकवेयर से नहीं।
क्या एल्युमिनियम बर्तनों से खाने में मेटल घुलता है?
हाँ, साइंटिफिक स्टडीज़ से यह साफ हुआ है कि एल्युमिनियम के बर्तन या फॉइल से थोड़ा–बहुत एल्युमिनियम खाने में घुलकर जा सकता है, खासकर कुछ खास कंडीशंस में। रिसर्च में पाया गया है कि पुराने, खुरचे हुए, या एसिडिक खाना पकाने पर इस्तेमाल किए गए एल्युमिनियम बर्तनों से फूड में मेटल की मात्रा ज़्यादा जा सकती है, जबकि नॉर्मल यूज़ में यह आमतौर पर कम और सेफ लिमिट्स के अंदर रहती है।
एक स्टडी में बेकिंग और कुकिंग के दौरान फॉइल और दूसरे एल्युमिनियम यूटेंसिल से एल्युमिनियम माइग्रेशन मापा गया, जिसमें एसिडिक मैरिनेड, हाई टेम्प्रेचर और लंबी कुकिंग टाइम पर फूड में एल्युमिनियम लेवल स्पष्ट रूप से ज़्यादा पाए गए। दूसरी तरफ, नॉर्मल होम कुकिंग में जब नॉन–एसिडिक या कम एसिड वाले खाने कम समय के लिए पकाए गए, तो एल्युमिनियम की मात्रा आमतौर पर ऐसी नहीं थी कि सेफ्टी गाइडलाइंस से बहुत ज़्यादा ऊपर चली जाए।
एल्युमिनियम फॉइल और हॉट रोटी: कितना सेफ?
इंडियन घरों में सबसे बड़ा सवाल यही है: “गरम रोटी को एल्युमिनियम फॉइल में लपेटना कितना सेफ है?” रिसर्च और फूड सेफ्टी बॉडीज़ की सलाह को मिलाकर देखें तो कुछ पॉइंट्स निकलते हैं। पहला, सूखी रोटी या पराठा जिसमें बहुत ज़्यादा तेल, नमक या एसिडिक मसाला न हो, अगर थोड़े समय के लिए फॉइल में लपेटा जाए, तो एल्युमिनियम माइग्रेशन आमतौर पर कम रहता है।
दूसरा, अगर आप बहुत गर्म, बहुत नम (ज़्यादा नमी वाला) या टमाटर/नींबू–बेस्ड ग्रेवी या बहुत नमकीन फूड सीधे फॉइल से टच में रखकर लंबे समय तक स्टोर करते हैं, तो एल्युमिनियम घुलकर फूड में ज़्यादा जा सकता है। इसीलिए कई एजेंसियां सलाह देती हैं कि एसिडिक या बहुत नमकीन फूड्स को लंबे समय के लिए सीधे फॉइल से चिपकाकर न रखें, बल्कि फॉइल से पहले बटर पेपर या फूड–सेफ पेपर की एक परत लगा सकते हैं।
कैंसर रिस्क: क्या एल्युमिनियम फॉइल से कैंसर साबित हुआ है?
अभी तक उपलब्ध पॉपुलेशन–लेवल एविडेंस में यह साबित नहीं हुआ है कि घर पर एल्युमिनियम के बर्तनों या फॉइल में खाने से आम लोगों में कैंसर का रिस्क सीधा और बड़ा रूप से बढ़ जाता है। IARC ने जो कार्सिनोजेनिक क्लासिफिकेशन दी है, वह एल्युमिनियम प्रोडक्शन प्लांट्स में वर्कर्स के इनहेल्ड एक्सपोज़र (धुआँ, गैस, टार इत्यादि) के लिए है, न कि घरों की कुकिंग के लिए।
कुछ रिसर्च में ज्यादा एल्युमिनियम एक्सपोज़र और ब्लैडर या लंग कैंसर के बीच लिंक इंडस्ट्रियल सेटिंग्स में देखा गया है, लेकिन नॉर्मल डाइटरी इंटेक और घर के कुकवेयर से ऐसे कैंसर लिंक अभी तक मज़बूती से स्टेबलिश नहीं हो पाए हैं। इसलिए बड़े कैंसर ऑर्गनाइज़ेशन और फूड सेफ्टी बॉडीज़ फिलहाल एल्युमिनियम कुकवेयर को अपने–आप में मेजर कैंसर रिस्क फैक्टर के तौर पर लिस्ट नहीं करते।
फिर भी एल्युमिनियम पर इतना शोर क्यों है?
कैंसर के अलावा एल्युमिनियम को लेकर न्यूरोटॉक्सिसिटी (दिमाग पर असर), बोन हेल्थ और किडनी फंक्शन पर भी स्टडीज़ होती रही हैं, खासकर किडनी फेलियर वाले पेशेंट्स या बहुत हाई एक्सपोज़र वाले लोगों में। पुरानी रिपोर्टों में डायलिसिस पेशेंट्स में एल्युमिनियम–लोडेड फ्लूड के कारण दिमाग और हड्डियों की प्रॉब्लम्स देखी गईं, जिसके बाद मेडिकल सेटिंग में एल्युमिनियम कंट्रोल बहुत सख्त किया गया।
इन स्पेशल केसों से आम पॉपुलेशन के लिए सीधे नतीजे निकालना सही नहीं है, लेकिन यह ज़रूर दिखता है कि बहुत हाई लेवल और लम्बे समय तक एल्युमिनियम शरीर में जमा रहे तो यह सेहत के लिए अच्छा नहीं है। यही कारण है कि हेल्थ एजेंसियां कहती हैं कि कुल एक्सपोज़र (डाइट, एडिटिव, दवाइयाँ, कुकवेयर, कॉस्मेटिक्स) को मिलाकर लिमिट के अंदर रखना बेहतर है।
कौन लोग एल्युमिनियम को लेकर ज़्यादा सावधान रहें?
कुछ ग्रुप ऐसे हैं जिनमें एल्युमिनियम की हाई इंटेक को लेकर एक्स्ट्रा केयर लेने की सलाह दी जाती है। पहला, किडनी डिज़ीज़ या क्रॉनिक किडनी फेलियर वाले लोग, क्योंकि किडनी एल्युमिनियम समेत कई मेटल्स को बाहर निकालने में अहम रोल निभाती है। जब किडनी फंक्शन कमजोर हो, तो मेटल्स शरीर में ज़्यादा जमा हो सकते हैं, इसीलिए ऐसे पेशेंट्स को डॉक्टर अक्सर एल्युमिनियम–कंटेनिंग एंटासिड या कुछ दवाओं को सीमित करने की सलाह देते हैं।
दूसरा ग्रुप छोटे बच्चे हैं, जिनका शरीर छोटा और वज़न कम होता है, इसलिए प्रति किलो वज़न पर एक्सपोज़र जल्दी बढ़ सकता है। तीसरा, वे लोग जो नियमित रूप से बहुत ज़्यादा प्रोसेस्ड या पैकेज्ड फूड खाते हैं जिसमें एल्युमिनियम–बेस्ड एडिटिव (जैसे कुछ बेकिंग पाउडर या कलरेंट) ज़्यादा हों, उनके लिए भी कुल एक्सपोज़र को बैलेंस करना समझदारी है।
इंडियन किचन में एल्युमिनियम: कॉमन सिचुएशन्स
भारतीय रसोई में एल्युमिनियम कई रूपों में दिखता है, जैसे बड़े भगोने, कड़ाही, प्रेसर कुकर (क्लासिक), दूध उबालने के बर्तन, डोसा तवा, साथ ही डिस्पोजेबल कंटेनर और फॉइल। कई सस्ते सड़क किनारे फूड वेंडर और ढाबे भी हल्के, पतले एल्युमिनियम के बर्तन इस्तेमाल करते हैं, जो जल्दी गरम हो जाते हैं और समय के साथ खुरच जाते हैं, जिससे माइग्रेशन बढ़ सकता है।
कुछ स्टडीज़ ने खासतौर पर डिवेलपिंग कंट्रीज़ में एल्युमिनियम समेत कई मेटल्स के रिलीज़ को जांचा है, जहां स्क्रैप मेटल से बने या स्टैंडर्ड के बिना बिकने वाले सस्ते बर्तन ज़्यादा पाए जाते हैं। इनमें कभी–कभी लेड, कैडमियम जैसे और भी ज़्यादा टॉक्सिक मेटल्स मिले हैं, जो सेहत के लिए एल्युमिनियम से भी गंभीर रिस्क दे सकते हैं।
फूड–ग्रेड एल्युमिनियम और सबस्टैंडर्ड मटेरियल का फर्क
इंटरनेशनल गाइडलाइंस साफ करती हैं कि फूड–ग्रेड एल्युमिनियम और एलॉयज़ के लिए कुछ प्योरिटी और माइग्रेशन लिमिट तय की गई हैं, जिनको फॉलो करने पर फॉइल और कंटेनर को फूड कॉन्टैक्ट के लिए सेफ माना जाता है। जब कंपनियां रेगुलेटेड फूड–ग्रेड मटेरियल से फॉइल या बर्तन बनाती हैं और माइग्रेशन टेस्ट पास करते हैं, तो इनका रिस्क सबस्टैंडर्ड या स्क्रैप वाले बर्तनों की तुलना में काफी कम होता है।
कई सरकारी और स्टैंडर्ड बॉडीज़ जनता को चेतावनी देती हैं कि बहुत पतली, आसानी से फटने वाली, या बिना किसी लेबल/ब्रैंड वाली फॉइल और कंटेनर में मिलावटी मेटल्स या नॉन–फूड–ग्रेड एल्युमिनियम हो सकता है, जो सेफ्टी टेस्ट से नहीं गुज़रा। इसलिए भरोसेमंद ब्रैंड, सही थिकनेस और फूड–ग्रेड मार्किंग देख कर ही फॉइल या डिस्पोजेबल कंटेनर खरीदना बेहतर है।
किस तरह के खाने में एल्युमिनियम माइग्रेशन ज़्यादा होता है?
रिसर्च में कुछ कॉमन फैक्टर्स सामने आए हैं जो एल्युमिनियम माइग्रेशन को बढ़ाते हैं।
- एसिडिक फूड: जैसे टमाटर–बेस्ड करी, नींबू–वाले मैरिनेड, इमली, सिरका–ज़्यादा सॉस आदि।
- बहुत नमकीन फूड: हाई–साल्ट कंटेंट एल्युमिनियम के साथ रिएक्शन बढ़ा सकता है।
- हाई टेम्प्रेचर: ओवन या ग्रिल में फॉइल–रैप्ड फूड को लंबे समय तक पकाने से माइग्रेशन बढ़ता है।
- लंबा कॉन्टैक्ट टाइम: फॉइल या बर्तन में खाना रखकर घंटों–दिनों तक स्टोर करने से भी ट्रांसफर बढ़ सकता है।
जब ये फैक्टर्स मिल जाते हैं, जैसे एसिडिक मैरिनेड में मैरिनेट किया मीट जिसे फॉइल में लपेटकर हाई टेम्प्रेचर पर बेक किया जाए, तो एल्युमिनियम की मात्रा तुलना में ज़्यादा पाई गई है। वहीं, नॉन–एसिडिक, कम नमक वाली चीज़ों में, मीडियम तापमान और कम समय के लिए इस्तेमाल करने पर लेवल आमतौर पर काफी कम रहते हैं।
एल्युमिनियम और किडनी/ब्रेन हेल्थ: क्या चिंता की बात है?
ह्यूमन हेल्थ रिस्क असेसमेंट रिपोर्ट्स के अनुसार, एल्युमिनियम ज़्यादा मात्रा और लंबे समय तक शरीर में जमा हो जाए तो यह नसों, दिमाग और हड्डियों पर असर डाल सकता है, खासतौर पर तब जब किडनी ठीक से इसे बाहर न निकाल पाए। एनिमल स्टडीज़ में हाई डोज़ पर दिमाग से जुड़े कुछ बदलाव और न्यूरोडेवलपमेंट पर इफेक्ट्स दिखे हैं, लेकिन ये डोज़ आम तौर पर आम इंसानी डाइट से कहीं ज़्यादा थे।
इसीलिए रेगुलेटरी बॉडीज़ ने TWI सेट करते समय ऐसे स्टडीज़ में देखे गए “नो ऑब्ज़र्व्ड एडवर्स इफेक्ट लेवल” और सेफ्टी फैक्टर्स को ध्यान में रखकर लिमिट तय की है, ताकि सामान्य डाइटरी एक्सपोज़र लाइफटाइम में भी सेफ रेंज में रहे। सामान्य, हेल्दी किडनी वाले लोगों में मौजूदा डाटा के आधार पर कैज़ुअल कुकवेयर या फॉइल यूज़ से सीधा न्यूरोलॉजिकल डिज़ीज़ या किडनी फेलियर का मजबूत सबूत नहीं मिला।
क्या एल्युमिनियम और ब्रेस्ट कैंसर के बीच कोई लिंक है?
पिछले कुछ सालों में एल्युमिनियम वाली एंटी–पर्सपिरेंट और ब्रेस्ट कैंसर के बीच लिंक पर भी काफी बहस हुई, जिससे आम लोगों में एल्युमिनियम को लेकर डर बढ़ा। लेकिन सिस्टेमैटिक रिव्यूज़ और बड़े ऑर्गनाइज़्ड डेटा एनालिसिस ने अब तक ऐसा क्लियर और कंसिस्टेंट सबूत नहीं दिखाया कि एल्युमिनियम एक्सपोज़र (खासकर सामान्य कॉस्मेटिक या डाइटरी यूज़ से) ब्रेस्ट कैंसर का सीधा कारण बन रहा है।
कुछ लैब बेस्ड स्टडीज़ में सेल लेवल पर पॉसिबल मैकेनिज़्म दिखाए गए, जैसे ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस या डीएनए इंटरैक्शन, लेकिन ह्यूमन पॉपुलेशन डेटा अभी भी इसको सीधी कॉज़ल चेन के रूप में सपोर्ट नहीं करता। इसलिए फिलहाल ब्रेस्ट कैंसर प्रिवेंशन गाइडलाइंस में एल्युमिनियम कुकवेयर या फॉइल को टार्गेटेड रिस्क फैक्टर के रूप में शामिल नहीं किया गया है।
रोज़ाना की ज़िंदगी में कुल एल्युमिनियम एक्सपोज़र के सोर्स क्या–क्या हैं?
अगर आप पूरे हफ्ते या महीने की एल्युमिनियम इंटेक को देखें तो यह कई सोर्सेज से मिलकर बनती है।
- नैचुरल डाइट: अनाज, सब्ज़ी, पानी में नेचुरली मौजूद एल्युमिनियम।
- फूड एडिटिव: कुछ बेकिंग पाउडर, कलरेंट, स्टेबलाइज़र आदि।
- कुकवेयर/फॉइल: बर्तन, फॉइल–रैपिंग, डिस्पोजेबल कंटेनर।
- दवाइयाँ: कुछ एंटासिड और मेडिकेशन में एल्युमिनियम सॉल्ट।
- कॉस्मेटिक्स: डिओडरेंट, सनस्क्रीन, पर्सनल केयर प्रोडक्ट्स।
रेगुलेटरी आकलन बताते हैं कि कई पॉपुलेशन्स में कुल डाइटरी सोर्सेज से TWI के आसपास तक पहुंचना मुमकिन है, खासतौर पर बच्चों में। इसीलिए एप्रोच यह है कि जहां–जहां आसानी से एक्सपोज़र घटाया जा सकता है (जैसे ज़रूरत से ज़्यादा फॉइल में स्टोरेज, बहुत पुराने खुरचे बर्तनों का इस्तेमाल), वहां सिंपल बदलाव करके सेफ्टी मार्जिन बेहतर कर लिया जाए।
सेफ्टी टिप्स: एल्युमिनियम बर्तन कैसे इस्तेमाल करें?
अगर आप एल्युमिनियम यूटेंसिल पूरी तरह छोड़ना न भी चाहें, तब भी कुछ आसान नियम अपनाकर इसे ज्यादा सेफ बना सकते हैं।
- बहुत ज़्यादा एसिडिक (टमाटर, नींबू, इमली, सिरका–ज़्यादा) या बहुत नमकीन खाने को एल्युमिनियम बर्तनों में लंबे समय तक न पकाएं।
- एल्युमिनियम बर्तनों में ऐसे फूड को स्टोर करने से बचें; स्टील, ग्लास या फूड–ग्रेड कंटेनर बेहतर हैं।
- बर्तन अगर अंदर से बहुत खुरच गए हों, काले धब्बे या पिट–पिट के निशान आ गए हों, तो उन्हें बदल देना ही अच्छा है।
- बहुत हाई हीट पर सूखे बर्तन को खाली–खाली न चढ़ाए रखें; इससे ऑक्सिडेशन और कोटिंग डैमेज हो सकती है।
इन सिंपल स्टेप्स से आप एल्युमिनियम माइग्रेशन को काफी हद तक कम कर सकते हैं, बिना यह महसूस किए कि आपको किचन पूरी तरह बदलने की ज़रूरत है।
एल्युमिनियम फॉइल: किन गलतियों से बचना चाहिए?
फॉइल को बिल्कुल छोड़ने की ज़रूरत नहीं, लेकिन गलत तरीके से इस्तेमाल करना रिस्क बढ़ा सकता है।
- फॉइल को सीधे बहुत एसिडिक या नमकीन खाना (जैसे नींबू–वाली फिश, टमाटर–ग्रेवी) के साथ लंबे समय तक टच में न रखें।
- ओवन या ग्रिल में ऐसे फूड को फॉइल में पैक कर के हाई हीट पर लंबे समय तक न पकाएं; यदि ज़रूरी हो तो बीच में बेकिंग पेपर की लेयर रख सकते हैं।
- लंबे स्टोरेज (रात–भर या उससे ज़्यादा) के लिए फॉइल को टाइट रैप की तरह न छोड़ें, बेहतर है एयर–टाइट स्टील/ग्लास कंटेनर का इस्तेमाल करें।
- बहुत पतली, अनब्रैंडेड और बेहद सस्ती फॉइल से बचें; फूड–ग्रेड क्लियर मार्किंग वाली फॉइल चुनें।
दैनिक लाइफ में सूखी रोटी या पराठा को थोड़े समय के लिए पैक करना, या थोड़ी देर तक गर्मी मेनटेन करने के लिए फॉइल से कवर करना आमतौर पर बड़ा रिस्क नहीं माना जाता, खासकर जब खाना एसिडिक न हो।
क्या पूरी तरह स्टील या कास्ट–आयरन पर शिफ्ट होना ज़रूरी है?
स्टेनलेस स्टील, कास्ट–आयरन, एनामेल्ड आयरन या ग्लास कुकवेयर डाइटरी मेटल एक्सपोज़र के मामले में आमतौर पर सेफ और स्थिर मटेरियल माने जाते हैं, हालांकि गलत मेंटेनेंस पर इनमें भी कुछ मेटल्स रिलीज़ हो सकते हैं। कई न्यूट्रिशन और फूड सेफ्टी एक्सपर्ट मिश्रित कुकवेयर अप्रोच की सलाह देते हैं, जिसमें रोज़ाना की ज़्यादातर कुकिंग के लिए स्टील, आयरन, ग्लास और नॉन–रिएक्टिव मेटल का यूज़ हो, और एल्युमिनियम का इस्तेमाल लिमिटेड और ज़रूरत–आधारित हो।
कास्ट–आयरन या आयरन तवे से खाना पकाने पर थोड़ा–बहुत आयरन फूड में जा सकता है, जो बहुत से लोगों के लिए फायदेमंद भी हो सकता है, खासकर आयरन डेफिशियंसी वाले रीजन में। इसलिए अगर बजट और सुविधा इजाज़त दे, तो धीरे–धीरे एल्युमिनियम बर्तनों का हिस्सा कम करके अच्छे स्टील और आयरन यूटेंसिल ज़्यादा रखना एक प्रैक्टिकल और बैलेंस्ड सॉल्यूशन हो सकता है।
पारंपरिक अनुभव बनाम आधुनिक साइंस: दोनों कैसे साथ चलें?
भारतीय घरों में बूढ़ी पीढ़ी अक्सर कहती है कि “पुराने जमाने में पीतल, कांसा, लोहे के बर्तन ज़्यादा हेल्दी थे और एल्युमिनियम–नॉनस्टिक नई बीमारी हैं।” यह पारंपरिक अनुभव पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि मेटल्स की प्रकृति सच में अलग–अलग है। दूसरी तरफ, आधुनिक साइंस साफ दिखाती है कि सामान्य, रेगुलेटेड लेवल पर एल्युमिनियम के लिए कैंसर जैसा बड़ा डर फिलहाल प्रूव्ड नहीं है, और सबसे बड़ा नुक़सान हाई एक्सपोज़र इंडस्ट्रियल या मेडिकल सेटिंग्स में दिखा है।
बेहतर अप्रोच यह है कि हम पारंपरिक “लोहे/स्टील को तरजीह दो” वाली समझ को आधुनिक साइंस की सेफ लिमिट और माइग्रेशन डेटा के साथ मिलाकर चलें। यानि जहां–जहां स्टील, आयरन और ग्लास आसानी से यूज़ हो सकते हैं, वहां उनको प्राथमिकता दें, और जहां मॉडल, बजट या सुविधा के लिए एल्युमिनियम ज़रूरी लगे, वहां इसे स्मार्ट और लिमिटेड तरीके से इस्तेमाल करें।
घर में किन छोटे–छोटे चेंज से एल्युमिनियम एक्सपोज़र घट सकता है?
- रोज़ की दाल, सब्ज़ी, सांभर जैसी एसिडिक–या–लिक्विड चीज़ें स्टेनलेस स्टील या प्रेशर कुकर के स्टील मॉडल में पकाएं।
- रोटी/पराठा अगर फॉइल में रखना ज़रूरी हो तो पहले उन्हें थोड़ा ठंडा होने दें, और बहुत देर तक रैप कर के न रखें।
- बचा हुआ खाना एल्युमिनियम के भगोने में फ्रिज में न रखें, तुरंत स्टील/ग्लास कंटेनर में शिफ्ट कर दें।
- बच्चों के लिए रोज़ का टिफिन नॉन–फॉइल, नॉन–डिस्पोजेबल मटेरियल (स्टील लंच बॉक्स) में पैक करें, फॉइल सिर्फ एक्सेप्शनल केस में, वह भी सूखे फूड के लिए।
- बिना जरूरत एल्युमिनियम–बेस्ड एंटासिड या मेडिकेशन लम्बे समय तक सेल्फ–मेडिकेशन के रूप में न लें, डॉक्टर की सलाह ज़रूर लें।
ये साधारण बदलाव कुल एक्सपोज़र को कम करते हैं, जबकि आपकी रोज़मर्रा की सुविधा भी बनी रहती है।
(FAQs)
1. क्या एल्युमिनियम फॉइल में लिपटी गर्म रोटी से कैंसर हो सकता है?
अब तक के साइंटिफिक डेटा में ऐसा कोई मज़बूत सबूत नहीं है कि सिर्फ रोटी या पराठा को फॉइल में लपेटने से कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है, खासकर जब खाना एसिडिक न हो और बहुत लंबा टाइम स्टोर न किया जाए। फिर भी एक्सपोज़र घटाने के लिए बेहतर है कि बहुत ज्यादा गर्म, नम या एसिडिक फूड को सीधे फॉइल से लंबे समय तक टच में न रखा जाए।
2. क्या एल्युमिनियम के बर्तन पूरी तरह छोड़ देना चाहिए?
अगर आपके पास स्टील, आयरन और ग्लास कुकवेयर का अच्छा विकल्प है, तो एल्युमिनियम का हिस्सा कम करना निश्चित रूप से एक्सपोज़र घटाता है, लेकिन सामान्य यूज़ को अचानक पूरी तरह बंद करना मेडिकल ज़रूरत नहीं माना गया। समझदारी यह है कि हाई–रिस्क सिचुएशन (एसिडिक, हाई हीट, लंबा स्टोरेज) में एल्युमिनियम अवॉइड करें और रोज़ की कुकिंग के लिए स्टेनलेस स्टील और आयरन को प्राथमिकता दें।
3. क्या एल्युमिनियम कुकवेयर से किडनी खराब हो सकती है?
किडनी की पहले से बीमारियों वाले पेशेंट्स में एल्युमिनियम जैसे मेटल्स का हाई एक्सपोज़र अतिरिक्त रिस्क बना सकता है, खासकर जब यह दवाओं या मेडिकल सोर्सेज से आए। लेकिन सामान्य, हेल्दी लोगों में सिर्फ होम कुकवेयर से मिलने वाली मात्रा को किडनी फेलियर का डायरेक्ट कारण साबित करने वाला डेटा मज़बूत नहीं है, हालांकि कुल एक्सपोज़र सीमित रखना हमेशा बेहतर है।
4. बच्चों के टिफिन के लिए एल्युमिनियम फॉइल इस्तेमाल कर सकते हैं?
कभी–कभार सूखी रोटी या सैंडविच को थोड़े समय के लिए फॉइल में लपेटना आमतौर पर बड़ा रिस्क नहीं माना जाता, लेकिन बच्चों का वज़न कम होने से प्रति किलो वज़न एक्सपोज़र ज़्यादा हो सकता है। इसलिए रोज़ाना के लिए स्टेनलेस स्टील या फूड–ग्रेड कंटेनर बेहतर विकल्प हैं, और फॉइल को सिर्फ एक्सेप्शनल या कम–फ्रीक्वेंसी यूज़ तक सीमित रखना अच्छा है।
5. मैं कैसे जानूं कि मेरी एल्युमिनियम फॉइल या कंटेनर फूड–ग्रेड है?
अच्छे ब्रैंड आमतौर पर पैक पर “फूड–ग्रेड एल्युमिनियम”, रेगुलेटरी मार्क या स्टैंडर्ड नंबर लिखते हैं और मोटाई भी ठीक–ठाक होती है जो आसानी से फटती नहीं। बिना लेबल, बहुत पतली और बेहद सस्ती फॉइल या कंटेनर में मिक्स्ड या स्क्रैप मेटल होने की संभावना ज़्यादा होती है, इसलिए भरोसेमंद ब्रैंड और प्रमाणित फूड–ग्रेड प्रोडक्ट चुनना सेफ है।
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