झामुमो की आधिकारिक मान्यता की मांग, राज्य पिता बने शिबू सोरेन
रांची : झारखंड मुक्ति मोर्चा की आधिकारिक मान्यता की मांग हैं कि शिबू सोरेन को राज्य पिता का दर्जा मिलें।जिसको लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय प्रवक्ता मनोज पांडेय ने मंगलवार को सीएम हेमंत सोरेन को एक ज्ञापन भी सौंपा। ज्ञापन के अनुसार दिशोम गुरु स्व. शिबू सोरेन को झारखंड का राज्य पिता के रूप में अधिसूचित करने की मांग की गई है।लेकिन,स्वयं शिबू सोरेन झामुमो के संस्थापक और प्रथम अध्यक्ष बिनोद बिनोद बिहारी महतो को पिता समान मानते थे।बिनोद बाबू शिबू सोरेन के राजनीतिक गुरु भी थे।उन्होंने एक आलेख के माध्यम से झारखंड पिता बिनोद बाबू को कहा था।
यह सोशल मीडिया में वायरल एक आलेख की प्रति से स्पष्ट होता हैं।शिबू सोरेन ने स्वयं बिनोद बाबू को झारखंड का पिता माना हैं।

वायरल आलेख की प्रति में लिखा हुआ हैं –
शीर्षक : झारखंड पिता बिनोद बाबू
शिबू सोरेन “सांसद”
अध्यक्ष, झारखंड मुक्ति मोर्चा
मुख्य संरक्षक, झारखंड बुद्धिजीवी मंच
“किसी व्यक्ति के राजनीतिक संबंध तो व्यावहारिकता के स्तर पर स्थापित होते हैं, किन्तु वे संबंध जब व्यक्तिगत श्रद्धा और आस्था का आयाम पा जाते हैं, तो उनकी सार्थकता एक सामाजिक धरोहर बन जाती हैं।
स्व. बिनोद बाबू मेरे पिता तुल्य थे।उन्होंने मुझे अपनी संतान की तरह निश्चल और अविरल प्यार दिया। मेरे झारखंड के लिए राजनीतिक संघर्ष की कहानी के वही आदि बिंदु थे और अपने जीवन के अंतिम दिनों में वही इसके उत्कर्ष का प्रतीक भी बने।
विनोद बाबू झारखंड के पिता एवं झारखंड मुक्ति मोर्चा के जन्मदाता थे। सन 1970 की बात है जब मैं जैना मोड़ में रहता था, उसे समय सनत संथाल समाज और शिवाजी समाज दोनों ही सामाजिक संगठन बहुत ही सशक्त स्वरूप और मजबूत आधार प्राप्त कर चुके थे। इनके पीछे झारखंड का विशाल जन समुदाय समर्पित रूप से खड़ा था और कुछ भी कर गुजरने के लिए आह्वान की प्रतीक्षा कर रहा था। ऐसे निर्णायक समय में विनोद बाबू ने ही दोनों समाजों का विलय करने का सुझाव दिया और फल स्वरुप झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे सशक्त राजनीतिक दल का अभ्युदय हुआ।
इस समय हुए इस झारखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार में सामाजिक आंदोलनों को भी साथ-साथ लेकर चलना पड़ा। जैसे आदिवासियों को शराब नहीं पीने देना, महाजनों द्वारा किए जा रहे गरीब आदिवासियों पर अत्याचार को रोकना। सन 1972 से 1974 तक सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन दोनों ही साथ-साथ जोरों पर चल। 1972 से 1982 तक विनोद बाबू और हमने साथ-साथ राजनीतिक संघर्ष किया। बीच में वैचारिक मतभेद के कारण हम एक दूसरे से अलग हुए, ऐसा इसलिए हुआ कि उनके जनाधार और वामपंथी रुझान का एक बाहर से टपके हुए नेता ने अपने निहित स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करने की चेष्टा की। इन मतभेदों के बावजूद सामान्य मुद्दों को लेकर 1987 में हम दोनों फिर एक हो गए।
राजनीतिक जीवन में उनसे मेरा पिता पुत्र जैसे संबंध था। राजनीति में प्रवेश और अपनी राजनीतिक भूमिकाओं की रूपरेखा तैयार करने में उन्हीं का योगदान रहा है। इसलिए मैं आज भी उन्हें पिता ही कहता हूं।”
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