सोशल मीडिया, गेमिंग Screen और पढ़ाई के दबाव से 1 में से 7 बच्चे मानसिक तनाव झेल रहे हैं। जानें, बच्चों की चिंता के संकेत, स्क्रीन टाइम लिमिट और साइंस–बेस्ड समाधान।
बच्चों की “डिजिटल चिंता” का नया चेहरा
आज के बच्चे स्कूल, ट्यूशन और एक्स्ट्रा क्लासेस के साथ–साथ दिन भर स्क्रीन से घिरे रहते हैं – ऑनलाइन क्लास, गेमिंग, रील्स, वीडियो और सोशल मीडिया। ओवरस्टिम्युलेशन, डर से भरा कॉन्टेंट और लगातार कम्पैरिजन बच्चों के दिमाग पर ऐसा प्रेशर बनाते हैं जो कई बार उन्हें खुद समझ ही नहीं आता, लेकिन उनके व्यवहार, नींद और पढ़ाई पर साफ दिखने लगता है।
नई ग्लोबल रिपोर्ट्स के अनुसार, 10–19 साल के लगभग हर 7 में से 1 बच्चा किसी न किसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या से प्रभावित है, जिसमें चिंता, डिप्रेशन और बिहेवियर से जुड़ी दिक्कतें सबसे आम हैं। भारत जैसे देशों में जहां डिजिटल डिवाइस का यूज़ तेज़ी से बढ़ा है, वहां बच्चों की “डिजिटल चिंता” को समय पर पहचानना और संभालना माता–पिता के लिए बहुत ज़रूरी हो गया है।
सेक्शन 1: बच्चों में चिंता कितनी आम हो चुकी है? साइंस क्या कहता है
विभिन्न स्टडीज़ और मेटा–एनालिसिस में पाया गया है कि दुनिया भर में बच्चों और किशोरों में चिंता और डिप्रेशन के लक्षणों की दर पिछले कुछ सालों में लगभग दोगुनी हो गई है, कुछ अनुमानों के मुताबिक लगभग 1 में से 5 युवाओं में क्लिनिकली ऊँचे स्तर की चिंता के लक्षण पाए जाते हैं।
संयुक्त WHO–UNICEF रिपोर्ट के अनुसार, 10–19 वर्ष के किशोरों में लगभग 1 में से 7 किसी न किसी मानसिक स्वास्थ्य कंडीशन से प्रभावित है, जिसमें एंग्ज़ाइटी डिसऑर्डर प्रमुख कारणों में से एक है, जो स्कूल परफॉर्मेंस, रिश्तों और लंबे समय के हेल्थ आउटकम्स को प्रभावित कर सकता है।
- भारत समेत कई देशों में किए गए रिव्यूज़ में बच्चों में चिड़चिड़ापन, गुस्सा, नींद की समस्या, ध्यान की कमी और सोशल व ithdrawal जैसे लक्षणों में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी गई है।
- महामारी के दौरान और बाद में की गई स्टडीज़ से पता चला कि डिप्रेशन के लक्षण लगभग 25 प्रतिशत और चिंता के लक्षण लगभग 20 प्रतिशत युवाओं में क्लिनिकली उच्च स्तर पर पाए गए।
सेक्शन 2: स्क्रीन टाइम, सोशल मीडिया और गेमिंग – कैसे बढ़ाते हैं चिंता
“स्क्रीन–चिंता” का चक्र
अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन द्वारा उद्धृत रिसर्च से संकेत मिला है कि बढ़ा हुआ स्क्रीन टाइम बच्चों में भावनात्मक और बिहेवियरल समस्याओं (जैसे चिंता, उदासी, आक्रामकता) से जुड़ा हुआ है, और जिन बच्चों में पहले से ऐसे लक्षण होते हैं, वे अक्सर और ज़्यादा स्क्रीन का सहारा लेते हैं – इस तरह एक “विषचक्र” बन जाता है।
एक बड़े क्रॉस–सेक्शनल स्टडी में 12–15 वर्षीय किशोरों में पाया गया कि जो बच्चे रोज़ 4–6 घंटे या उससे ज़्यादा स्क्रीन पर रहते थे, उनमें तनाव, चिंता और डिप्रेशन के लक्षण उन बच्चों की तुलना में काफी ज़्यादा पाए गए जो कम समय स्क्रीन पर बिताते थे।
- तेज़, तेज़ बदलते विज़ुअल्स और गेमिंग से दिमाग लगातार अलर्ट मोड में रहता है, जिससे नींद में दिक्कत, चिड़चिड़ापन और फोकस की समस्या बढ़ सकती है।
- सोशल मीडिया पर लाइक्स, फॉलोअर्स और कमेंट्स के जरिए वेलिडेशन की तलाश बच्चों में “अप्रूवल एंग्ज़ाइटी” और तुलना–जनित तनाव बढ़ाती है।
गेमिंग और वीडियो का असर
अमेरिकन अकैडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स की रिकमेंडेशन के अनुसार, 2–5 साल के बच्चों के लिए मनोरंजन के स्क्रीन टाइम को आमतौर पर लगभग 1 घंटे (वीकडेज़) और वीकेंड पर सीमित घंटों तक रखना बताया जाता है, जबकि कई हालिया स्टडीज़ दिखाती हैं कि कई बच्चे इससे कहीं ज़्यादा समय गेमिंग और वीडियो में बिताते हैं।
लंबे समय तक तेज़, रिवॉर्ड–बेस्ड गेमिंग और वीडियो प्लेटफॉर्म्स के संपर्क से ध्यान की समस्या, इम्पल्सिव बिहेवियर और सोशल एंग्ज़ाइटी के लक्षणों में वृद्धि के संकेत मिलते हैं, खासकर उन बच्चों में जिनमें पहले से भावनात्मक संवेदनशीलता या अन्य मानसिक स्वास्थ्य रिस्क फैक्टर्स मौजूद होते हैं।
सेक्शन 3: तनाव और चिंता के शुरुआती संकेत – क्या देखें माता–पिता
व्यवहार में बदलाव
- अचानक ज़्यादा चिड़चिड़ापन, छोटी–छोटी बातों पर गुस्सा या रोना, बार–बार मूड स्विंग।
- पहले पसंद आने वाली एक्टिविटीज़ (दोस्तों के साथ खेलना, हॉबी, आउटडोर गेम्स) में रुचि कम होना और ज़्यादातर कमरे में या स्क्रीन के साथ अकेले रहना।
शारीरिक और नींद से जुड़े संकेत
- बार–बार पेट दर्द, सिर दर्द, उलझन या थकान की शिकायत, जबकि मेडिकल जांच में कोई खास कारण न मिले, कई बार भावनात्मक तनाव और चिंता का संकेत हो सकते हैं।
- देर रात तक मोबाइल/टैबलेट यूज़ करना, नींद में कठिनाई, डरावने सपने, बार–बार रात में उठना या सुबह थकान के साथ उठना।
स्कूल और पढ़ाई में बदलाव
- अचानक मार्क्स गिरना, होमवर्क से बचना, स्कूल जाने से डर या बहाने बनाना, टीचर या दोस्तों से डर महसूस करना।
- एग्ज़ाम या प्रेज़ेंटेशन से पहले बहुत ज़्यादा घबराहट, पेट में दर्द, पसीना आना, कंपकंपी या “कुछ गलत हो जाएगा” वाली सोच।
सेक्शन 4: डिजिटल लाइफ को कैसे बैलेंस करें – प्रैक्टिकल स्क्रीन टाइम गाइड
1. फैमिली मीडिया प्लान बनाएं
अमेरिकन अकैडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स और कई पेडियाट्रिक संस्थान पेरेंट्स को सलाह देते हैं कि वे घर के लिए एक स्पष्ट “फैमिली मीडिया प्लान” बनाएं – किस उम्र के बच्चे को कितने समय, किस तरह का कॉन्टेंट और किन टाइम स्लॉट्स में स्क्रीन यूज़ की अनुमति होगी।
- “डिवाइस–फ्री ज़ोन”: सोने का कमरा, डाइनिंग टेबल, पढ़ाई की जगह – इन क्षेत्रों को स्क्रीन–फ्री रखने की कोशिश करें ताकि नींद और कंसन्ट्रेशन बेहतर रहे।
- “डिवाइस–फ्री टाइम”: सोने से कम से कम 60–90 मिनट पहले स्क्रीन बंद कर देना बच्चों (और बड़ों) की नींद की क्वालिटी के लिए फायदेमंद दिखाया गया है।
2. कंटेंट पर फोकस, सिर्फ समय पर नहीं
स्टडीज़ दिखाती हैं कि कौन–सा कंटेंट देखा जा रहा है और किस मकसद से, यह सिर्फ “कितने घंटे” से ज़्यादा मायने रखता है।
- शैक्षिक व सकारात्मक–क्रिएटिव कंटेंट (सीखने वाले वीडियो, डॉक्युमेंट्री, आर्ट–क्राफ्ट ट्यूटोरियल) की तुलना में हिंसक गेम, लगातार रील्स और सोशल मीडिया ड्रामा चिंता, आक्रामकता और लो सेल्फ–एस्टीम से ज़्यादा जुड़े पाए गए हैं।
- जहां संभव हो, बच्चों के साथ बैठकर कंटेंट देखें, सवाल पूछें–जवाब दें, ताकि वे डरावने या गलत संदेश वाले कॉन्टेंट को अकेले समझने–झेलने के बजाय आपके साथ प्रोसेस कर सकें।
3. “कम्प्लीट बैन” से बेहतर है “गाइडेड यूज़”
रिसर्च बताती है कि सिर्फ सख्त रोक लगाने से कई बच्चे चोरी–छुपे स्क्रीन यूज़ करने लगते हैं और उनसे खुलकर बात करना मुश्किल हो जाता है।
- बच्चों के साथ मिलकर नियम तय करें – जैसे “गेमिंग सिर्फ होमवर्क और आउटडोर प्ले के बाद, वह भी 45 मिनट” – ताकि उन्हें भी कंट्रोल और पार्टनरशिप का एहसास हो।
सेक्शन 5: घर में ही बच्चों की चिंता कम करने के 10 प्रैक्टिकल उपाय
कई क्लिनिकल और काउंसलिंग गाइड्स सुझाते हैं कि पेरेंट्स का रेस्पॉन्स बच्चों की चिंता को या तो शांत कर सकता है या और बढ़ा सकता है।
- उनके डर को “नज़रअंदाज़” न करें, वैलिडेट करें
बच्चे जब कहते हैं “मुझे एग्ज़ाम से डर लग रहा है” या “दोस्त मुझे पसंद नहीं करते”, तो उन्हें तुरंत “कुछ नहीं होता” कहकर टालने के बजाय, पहले उनके भाव महसूस करने दें – “हाँ, एग्ज़ाम स्ट्रेसफुल लग सकता है, चलो साथ मिलकर प्लान बनाते हैं।” - रोज़ का रूटीन स्थिर रखें
नियमित सोने–जागने, होमवर्क, खेलने और खाने का रूटीन बच्चों में सेफ्टी–फीलिंग और प्रेडिक्टबिलिटी देता है, जो चिंता कम करने में मदद करता है। - शारीरिक गतिविधि ज़रूर हो
काउंसलिंग रिसोर्सेज़ का सुझाव है कि रोज़ 30–60 मिनट की शारीरिक गतिविधि (साइक्लिंग, रनिंग, गेम्स) बच्चों की चिंता के लक्षणों को कम कर सकती है और मूड बेहतर बनाती है। - सिंपल रिलैक्सेशन टेकनीक सिखाएं
बच्चों को डीप ब्रीदिंग, 4–7–8 ब्रीद जैसे आसान अभ्यास, या “टाइट करके–छोड़ने” वाली प्रोग्रेसिव मसल रिलैक्सेशन, या मन में एक शांत जगह की इमेजिनेशन जैसे टूल सिखाए जा सकते हैं। - “प्रॉब्लम–सॉल्विंग” साथ में प्रैक्टिस करें
जब बच्चे किसी चीज़ को लेकर परेशान हों, तो उन्हें “हम क्या–क्या तीन तरीके ट्राय कर सकते हैं?” सोचने में मदद करें, ताकि वे सिर्फ डर में फंसे रहने के बजाय समाधान खोजने की आदत डालें। - पॉज़िटिव सेल्फ–टॉक और अफर्मेशन
गाइड्स सुझाती हैं कि बच्चों को “मैं कोशिश कर सकता/सकती हूँ”, “गलती से मैं सीख सकता/सकती हूँ” जैसे पॉज़िटिव वाक्य अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना, उनके सेल्फ–एस्टीम और रेसिलिएंस को बढ़ा सकता है। - घर में “सेफ स्पेस” बनाएं
बच्चों के कमरे या घर के किसी कोने को ऐसा स्थान बनाएं जहाँ वे अपने पसंदीदा बुक्स, टॉयज़ या आर्ट के साथ शांति से समय बिता सकें, बिना टीवी या मोबाइल के शोर के। - स्क्रीन के बदले ऑफलाइन एक्टिविटी
पेरेंटिंग गाइड्स बताती हैं कि जब भी बच्चे बोर हों, तो तुरंत स्क्रीन देने के बजाय बोर्ड गेम्स, ड्रॉइंग, म्यूज़िक या आउटडोर एक्टिविटी का विकल्प देना उनकी ध्यान क्षमता और इमैजिनेशन को मजबूत करता है। - खुद उदाहरण बनें
बच्चे माता–पिता की कॉपी करते हैं; अगर वे देखते हैं कि पेरेंट भी तनाव में सिर्फ स्क्रीन या सोशल मीडिया की ओर भागते हैं, तो वे भी वही पैटर्न सीखते हैं। शांत तरीके से प्रॉब्लम–सॉल्व करना, टाइम मैनेज करना और स्क्रीन को लिमिट करना पेरेंट्स के लिए भी ज़रूरी है। - जरूरत पड़ने पर मदद लेने में झिझकें नहीं
अगर घर के उपायों के बावजूद बच्चा रोज़मर्रा के काम (स्कूल, दोस्तों, नींद, खाना, एक्टिविटीज़) में संघर्ष कर रहा हो, तो यह सिर्फ “फेज़” नहीं हो सकता; प्रोफेशनल मदद लेना समय रहते बहुत फायदेमंद होता है।
सेक्शन 6: कब ज़रूरी है डॉक्टर या मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल से मिलना?
- जब बच्चा लगातार हफ्तों तक उदास, डरा हुआ या चिड़चिड़ा रहे और यह उसके पढ़ाई, रिश्तों या रोजमर्रा के कामों में दखल दे रहा हो।
- जब वह आत्म–हानि (खुद को चोट पहुँचाने), खुद को बेकार मानने या जीने की इच्छा खोने की बातें करे – ऐसी किसी भी बात को हमेशा गंभीरता से लेना चाहिए।
- जब चिंता की वजह से बच्चे को पैनिक जैसे लक्षण हों – तेज़ धड़कन, सांस फूलना, हाथ–पैर कांपना, पसीना, पेट में अचानक दर्द – खासकर किसी खास स्थिति (एग्ज़ाम, स्कूल, सोशल सिचुएशन) के दौरान।
कई इंटरनेशनल गाइडलाइंस और रिसर्च बताते हैं कि कॉग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी (CBT) बच्चों और किशोरों में चिंता संबंधी विकारों के इलाज के लिए “गोल्ड स्टैंडर्ड” मानी जाती है, जिसमें रैंडमाइज़्ड कंट्रोल्ड ट्रायल्स में लगभग 47–66 प्रतिशत तक रिकवरी रेट्स रिपोर्ट किए गए हैं।
सेक्शन 7: CBT क्या है और बच्चों के लिए कैसे काम करता है?
CBT एक साइंस–बेस्ड थेरेपी है जिसमें बच्चों को उनके नकारात्मक विचार–पैटर्न और डर से जुड़े व्यवहार को पहचानने और धीरे–धीरे बदलने में मदद की जाती है। क्लिनिकल डेटा दिखाता है कि 3–8 साल तक के छोटे बच्चों में भी उचित मॉडिफिकेशन के साथ CBT से चिंता के लक्षणों में मीडियम से बड़ी डिग्री तक कमी देखी गई है।
हालिया NIH–समर्थित स्टडी में दिखाया गया कि CBT से इलाज के तीन महीने बाद बच्चों के दिमाग के कई हिस्सों में एक्टिवेशन पैटर्न सामान्य बच्चों जैसा हो गया और उनकी चिंता के लक्षणों व कार्यक्षमता में क्लिनिकली महत्वपूर्ण सुधार हुआ।
- CBT में गेम्स, रोल–प्ले, कहानियों और छोटे–छोटे “ब्रेवरी स्टेप्स” के ज़रिए बच्चों को धीरे–धीरे अपने डर का सामना करना सिखाया जाता है।
- कई मामलों में CBT और उचित दवा का संयोजन उन बच्चों के लिए सबसे असरदार पाया गया है जिनमें लक्षण बहुत गंभीर हों।
सेक्शन 8: भारतीय संदर्भ में कुछ खास बातें
भारत में कई बच्चे संयुक्त परिवार, पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं के अतिरिक्त दबाव, और कभी–कभी मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुलकर बात न करने की संस्कृति के बीच बड़े होते हैं, जिससे वे अपने डर और चिंता को भीतर ही भीतर दबा लेते हैं।
स्कूल–काउंसलर, चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट, पेडियाट्रिकियन और ऑनलाइन काउंसलिंग प्लेटफ़ॉर्म अब धीरे–धीरे भारत में ज़्यादा सुलभ हो रहे हैं, और शहरी माता–पिता के अलावा छोटे शहरों में भी बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता बढ़ रही है।
- पेरेंट्स के लिए यह समझना ज़रूरी है कि “मानसिक स्वास्थ्य” सिर्फ गंभीर बीमारी का नाम नहीं, बल्कि बच्चे की रोज़मर्रा की भावनात्मक भलाई, आत्म–विश्वास और सामाजिक कौशल का हिस्सा है।
FAQs
1. कितने घंटे स्क्रीन टाइम बच्चों के लिए ठीक माना जाता है?
कई पेडियाट्रिक गाइडलाइंस सुझाती हैं कि 2–5 साल के बच्चों के लिए मनोरंजन–आधारित स्क्रीन टाइम को रोज़ लगभग 1 घंटे तक सीमित रखना बेहतर है, जबकि बड़े बच्चों और किशोरों के लिए भी स्कूल व पढ़ाई से अलग रिक्रिएशनल स्क्रीन टाइम पर स्पष्ट सीमा रखना फायदेमंद है। साथ ही, सोने से 1–1.5 घंटे पहले स्क्रीन से दूर रहना नींद और चिंता दोनों के लिए मददगार पाया गया है।
2. कैसे समझें कि मेरा बच्चा बस “नॉटी” है या वास्तव में चिंता से जूझ रहा है?
अगर बच्चा कभी–कभी गुस्सा करता है या होमवर्क से बचता है, तो यह सामान्य हो सकता है; लेकिन जब उदासी, डर, चिड़चिड़ापन या गुस्सा लगातार हफ्तों तक रहे और पढ़ाई, दोस्ती, नींद या खाने–पीने पर असर डालने लगे, तो यह सिर्फ नॉटीनेस नहीं, बल्कि चिंता या किसी अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्या का संकेत हो सकता है। ऐसे में पेडियाट्रिकियन या चाइल्ड काउंसलर से सलाह लेना सही रहेगा।
3. क्या सिर्फ स्क्रीन कम करने से ही बच्चों की चिंता ठीक हो जाएगी?
स्क्रीन टाइम कम करना ज़रूरी हिस्सा है, लेकिन कई स्टडीज़ बताती हैं कि स्क्रीन–ओवरयूज़ अक्सर केवल लक्षण है; अंदर की चिंता, अकेलापन, पढ़ाई या रिश्तों का तनाव जैसे कारण भी होते हैं। इसलिए स्क्रीन लिमिट के साथ–साथ बच्चों से खुलकर बात करना, रूटीन, शारीरिक गतिविधि, रिलैक्सेशन टेकनीक और जरूरत पड़ने पर प्रोफेशनल मदद – ये सब मिलकर असर दिखाते हैं।
4. क्या छोटे बच्चों पर भी CBT जैसी थेरेपी काम करती है?
हाल के मेटा–एनालिसिस में पाया गया है कि 3–8 साल तक के बच्चों में भी मॉडिफाइड CBT से चिंता के लक्षणों में मीडियम से बड़े प्रभाव आकार तक सुधार देखा गया। छोटे बच्चों के लिए थेरपिस्ट खेल, स्टोरी, पिक्चर्स और पैरेंट को एक्टिव पार्टनर बनाकर सेशन डिज़ाइन करते हैं, ताकि बच्चा सुरक्षित महसूस करे और धीरे–धीरे अपने डर का सामना करना सीख सके।
5. कौन–से संकेत दिखें तो तुरंत मदद लेनी चाहिए, इंतज़ार नहीं करना चाहिए?
अगर बच्चा आत्म–हानि या मरने की बातें करे, बहुत तेज़ पैनिक अटैक जैसा अनुभव बताए, खाने से बिल्कुल इंकार करे, नींद बुरी तरह बिगड़ जाए, या स्कूल–सोशल लाइफ पूरी तरह बाधित हो जाए, तो यह “वेट एंड वॉच” की स्थिति नहीं है। ऐसे में तुरंत पेडियाट्रिकियन, चाइल्ड साइकेट्रिस्ट या इमरजेंसी हेल्पलाइन से संपर्क करना ज़रूरी है, क्योंकि शुरुआती इंटरवेंशन से लंबे समय के असर काफी कम किए जा सकते हैं।
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