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कृषि कानून के खिलाफ आंदोलन को शह देने में जुटे विपक्ष की रणनीति को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झटके में मात दे दी

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कृषि कानून के खिलाफ आंदोलन को शह देने में जुटे विपक्ष की रणनीति को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झटके में मात दे दी। आंदोलन ने बेशक पूरे प्रदेश को अपनी जद में न लिया हो, लेकिन राज्य के पश्चिम और तराई क्षेत्र की लगभग 125 सीटों पर चुनावी दंगल तगड़ा होने की आशंका जरूर थी। अंतत: किसानों की मांग पर बड़ा दिल दिखाते हुए सरकार ने जो यू-टर्न लिया है, वह विपक्ष के हाथ से किसानों का मुद्दा छीनकर उल्टे पांव लौटा सकता है।कुछ माह बाद ही विधान सभा का चुनाव होने जा रहा है। सत्ताधारी भाजपा के सामने सरकार बचाने तो लगातार चुनावों में हार देख रही सपा, बसपा और कांग्रेस के सामने अस्तित्व बचाने का संकट है। ऐसे में इन विरोधी दलों ने कानून व्यवस्था से लेकर महंगाई तक तमाम मुद्दों को सिक्के की तरह उछालकर देखा, लेकिन उससे जनता को उम्मीदों के मुताबिक शायद वह न जोड़ सके। इधर, केंद्र सरकार द्वारा करीब एक वर्ष पहले लागू किए तीन कृषि कानूनों का ही एकमात्र मुद्दा ऐसा रहा, जिस पर समूचे विपक्ष की आस जा टिकी। दिल्ली-यूपी की सीमा पर लगभग एक वर्ष से चल रहे आंदोलन के बहाने सभी दलों ने भाजपा सरकार को घेरने की कोशिश की। सभी ने इन्हें काला कानून बताते हुए आंदोलन का समर्थन किया।

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भले ही आंदोलनकारियों ने विपक्षी दलों को अपना मंच साझा नहीं करने दिया, लेकिन इन पार्टियों के रणनीतिकारों ने इस मुद्दे पर ही चुनावी बिसात बिछाना ज्यादा मुफीद समझा। कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने किसान पंचायतें कीं तो समाजवादी पार्टी ने किसान पटेल यात्रा प्रदेश में निकाली। बसपा प्रमुख मायावती भी कृषि कानूनों को वापस लिए जाने मांग दोहराती रहीं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि इन कानूनों के विरुद्ध प्रदेश में आंदोलन तमाम प्रयासों के बाद भी विस्तार नहीं ले सका, लेकिन पश्चिम और तराई क्षेत्र में भाजपा के लिए राह कठिन जरूर लगने लगी थी। मेरठ, मुजफ्फरनगर, हापुड़, मुरादाबाद, सहारनपुर, बागपत, शामली, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी आदि जिलों की लगभग 125 सीटों पर विपक्षी दलों को भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने का मौका दे दिया। ज्यों-ज्यों चुनाव तेजी पकड़ता, वैसे-वैसे यह पार्टियां कृषि कानूनों पर चर्चा के सहारे कानून व्यवस्था, महंगाई आदि की चर्चा कर माहौल खराब कर सकते थे। अब कानूनों को वापस लेने से चुनाव में यह मुद्दा ही नहीं रहेगा।केंद्र सरकार के इस फैसले ने भाजपा संगठन को भी सुकून दिया है। अभी तक विधान सभा चुनाव की रणनीति में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लेकर खास सतर्कता बरती जा रही थी। पार्टी किसानों का मन टटोल रही थी। खास तौर पर पश्चिम और तराई क्षेत्र के नेताओं के मन में संकोच था कि किसानों के बीच जाने पर कहीं इस मुद्दे का सामना न करना पड़े। मौजूदा विधायक और चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेताओं ने अब ठंडी सांस ली होगी।

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